अलगनी में सुखाये थे कुछ ख्वाब धूप में मैंने,
बोलो सूरज क्या तुमने देखे हैं?
बुने थे कुछ सपने मैंने दिन ढले,
क्या चाँद तुमने ओढे हैं?
तह कर अलमारी में सजाया मैंने तब भी
चोरी हुए सब ख्वाब मेरे ,
तब मैंने ख्वाबो का एक कमरा बनाया
पर लगता है उसमे भी कोई आया
गुमसुम क्यूँ हो रोशनदान कहीं तुमने तो नहीं चुराए सब ख्वाब मेरे!
Friday, December 12, 2008
Posted by सुरभि at 1:20 AM
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3 comments:
जैसा मैने पहले कहा कि आप का शिल्प और रचनाएं दोनो बेहतर है और आप की यह क्षणिका भी इसी शिल्प और बेहतर रचना को उदघाटित करता है वाह वाह वाह वाह..........
bahut sundar,aapki rachnao ke bhav kahi gahre tak utar jate hai.
---------------------------"VISHAL"
"अचानक मुझमे असंभव कि आकांक्षा जागी...!
ये आपके प्रोफाईल के सकारात्मक शब्द सार्थक हो रही है इस रचना मे अलगनी में सुखाये थे कुछ ख्वाब धूप में मैंने,
बोलो सूरज क्या तुमने देखे हैं?
बहुत खूब --- सुन्दर
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