Monday, April 23, 2007

डाकिये की घंटी

डाकिये ने घंटी बजाई
और मैं दौड़ पड़ी दरवाज़े पर
सोचते हुए मेरी चिट्ठि आई है
मैने चिट्ठि ली
और ईश्वर का नाम लेकर
चिट्ठि पर लिखा पता देखा
पता मेरे ही घर का था
पर चिट्ठि मेरे नाम नही थी
मैं उदास क़दमों से अंदर आयी
और सोचने लगी
मैने नही दिया कभी तुम्हे अपना पता
ना ही दिया अधिकार कुछ भेजने का
जब आकाश भ्रर बाते करने वाले ही
मुझे चिट्ठि नही लिखते
फिर तुमसे तो मैने चँद लम्हो ही
की थी बात
कभी लगता है तुम नाराज़ हो
कभी लगता है अब अपनापान नही रहा
फिर मैं सोचती हूँ
कहीं कोई स्थायी रिश्ता रहा हो तो
तब तो हो संबंधो मे गर्माहट
फिर लगता है
जब मैने ही तुम्हारी खोज ख़बर
नही ली तो तुम क्यूं लोगे
यही सोचकर मैं निश्चय करती हूँ
अब नही करूंगी मैं डाकिये का इंतज़ार
पर दूसरे दिन फिर
डाकिये की घंटी बजती है
और मैं दौड़ पड़ती हूँ दरवाज़े पर !