Monday, April 20, 2009

इंतज़ार

थी मैं कितनी अधीर
तुमसे मिलने से पहले
इंतज़ार मुझे काटने को दौड़ता था
एक एक पल सदियों पुराना लगता था
हँसती थी मैं उन पर
जो इंतज़ार की राह में बैठे होते थे
और कहती थी
इंतज़ार से बड़ा पागलपना और क्या होगा एस दुनिया में?
पर तुमसे मिलने के बाद
पहली बार लगा
इंतज़ार का मज़ा ही कुछ और है
ना दिन, ना हफ्ते, ना महीने
बल्कि कई सालों तक किया जा सकता है इंतज़ार
आज बरसों बीत गये
मुझे तुम्हारा इंतज़ार करते हुए
पर तुम भी तक नही आए
ना ही तुम्हारी कोई खबर आयी
पर फिर भी हूँ मैं
बैठी इंतज़ार की राह में
और आज गुज़रता हुआ एक शख़्स बोला
इंतज़ार से बड़ा पागलपना और क्या होगा एस दुनिया में
और हंसकर मेरे करीब से गुज़र गया!

2 comments:

Prakash Badal said...

चिलमनों पर सजी हैं आँखें,

रासतों पर लगी हैं आँखें,

हो गई इंतज़ार में पत्थर,

खिड़कियों पर टँगी हैं आँखें।


आपकी कविता पढ़कर किसी का ये खूबसूरत शेर याद आ गया। बहुत अच्छी कविता है। वाह!

अनिल कान्त said...

बेहद भावपूर्ण कविता ...दिल के भावों को आपने शब्दों में ढाला है